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Saturday, January 16, 2010



ज़ख्म


जब भी देखा मैंने अपने नैनों में एक सपना,
तब से लगी समझने सारे जग को बिल्कुल अपना।

मैं दीवानी अपनेपन की,
या दुनिया बेगानी,
गूँज रही मन की घाटी में बरबस यही कहानी।

ये कैसे अजीब लम्हें है,
या दीवानापन है,
सब पागल हैं या
मेरे ही मन का पागलपन है।


न भूल पाऊँगी तुम्हारा नाम,
याद करुँगी हर पल हर शाम,
क्यूँ दिया इस नाज़ुक दिल को ज़ख्म?
होगा न असर अब लगाकर मरहम !

15 comments:

jamos jhalla said...

बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब दर्द मिन्नत कश ए दवा ना हुआ |ये ना अछा हुआ बुरा ना हुआ|| happy lohdee

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर जी आप की यह कविता

M VERMA said...

सुन्दर रचना और भाव

Sanjay Gontiya said...

Beautyful poems followed by beautyful paintings.

Apanatva said...

nice poem .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर कविता है जी!
बधाई!

मनोज कुमार said...

अच्छी रचना।

vandana gupta said...

bahut hi sundar aur dardbhari rachna.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

सुंदर तश्वीर और उतनी ही सटीक अभिव्यक्ति.

सदा said...

बहुत ही सुन्‍दर भाव लिये हुये अनुपम प्रस्‍तुति ।

RAJ SINH said...

उर्मी ,
अरसा बाद आना हो सका .लेकिन आज अगला पिछला सब पढ़ आनंद आया ..........
रसगुल्ले ने तो मिठास ही भर दी :)

Creative Manch said...

मैं दीवानी अपनेपन की,
या दुनिया बेगानी,
गूँज रही मन की घाटी में बरबस यही कहानी।


बहुत सुन्दर कविता
अच्छी प्रस्‍तुति
बधाई !

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुन्दर कविता है जी!
बधाई!

संजय भास्‍कर said...

maaf karna babli ji kai dino se bahar gaya hua tha blog par nahi aa saka....

संजय भास्‍कर said...

behtreen..